भगत सिंह की फाँसी गांधी की नैतिक हार
मंगलवार, 25 सितंबर, 2007 को 12:41 GMT तक के समाचार 
प्रोफ़ेसर चमनलाल
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली
'भगत सिंह की फाँसी गांधी की नैतिक हार'
आज़ादी  के आंदोलन में भगत सिंह के समय में दो प्रमुख धाराएं थीं. एक निश्चित रूप  से महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की धारा थी जो उस वक्त सबसे  ज़्यादा प्रभावशाली और व्यापक पहुंच वाली थी.
दूसरी  धारा क्रांतिकारियों की धारा थी जिसके एक प्रमुख नेता थे भगत सिंह.  हालांकि इस धारा का आधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का था  लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी बहुत ताकतवर थे.
इस  दौरान कांग्रेस के गरमदल के नेता, बिपनचंद्र पॉल, लाला लाजपत राय और  बालगंगाधर तिलक गुज़र चुके थे और नरमदल वालों का वर्चस्व था जिसकी पूरी  लगाम गांधी के हाथ में थी. गांधी इस वक्त अपने दौर के चरम पर थे.
गांधी  शांतिपूर्वक नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे थे जो अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी  अच्छा था क्योंकि इससे उनकी व्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता था पर  मध्यमवर्गीय नेताओं की इस नैतिक लड़ाई का आम लोगों को भी बहुत लाभ नहीं  मिलता था.
महात्मा गांधी गुजरात के थे. अहमदाबाद  उस वक्त एक बड़ा मज़दूर केंद्र था. एक सवाल पैदा होता है कि वहाँ के  हज़ारों-लाखों लोगों के लिए गांधी या पटेल ने कोई आंदोलन क्यों नहीं खड़ा  किया. बल्कि कुछ अर्थों में गांधी ने वहाँ पैदा होते मज़दूर आंदोलन के लिए  यही चाहा कि वो और प्रभावी न हो. मज़दूर आंदोलन में सक्रिय इंदुलाल  याज्ञनिक जैसे कांग्रेसी नेता भी उपेक्षित ही रहे.
नेहरू  थोड़ा-सा हटकर सोचते थे और ऐसे मॉडल पर काम करना चाहते थे जो व्यवस्था में  बदलाव लाए पर इस मामले में वो कांग्रेस में अकेले ही पड़े रहे.
कांग्रेस और भगत सिंह
भगत  सिंह की सबसे ख़ास बात यह थी कि वो कांग्रेस और गांधी के इस आंदोलन को  पैने तरीके से समझते थे और इसीलिए उन्होंने कहा था कि कांग्रेस का आंदोलन  आख़िर में एक समझौते में तब्दील हो जाएगा.
उन्होंने कहा था कि कांग्रेस 16 आने में एक आने के लिए संघर्ष कर रही है और उन्हें वो भी हासिल नहीं होगा. 
गांधी  का रास्ता पूँजीवादी रास्ता था. कई पूँजीवादी, पूँजीपति और ज़मींदार गांधी  के आंदोलन में उनके साथ थे. भगत सिंह का रास्ता इससे बिल्कुल अलग  क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन का रास्ता था. 
इतनी  छोटी उम्र में भी भगत सिंह ने एक परिपक्व राजनीतिक समझ को सामने रखते हुए  एक ज़मीन तैयार की जिससे और क्रांतिकारी पैदा हो सकें. भगत सिंह के दौर में  क़रीब 2000 किशोर क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज हुए थे.
गांधी  ने भगत सिंह के असेंबली पर बम फ़ेंकने के क़दम को 'पागल युवकों का कृत्य'  करार दिया था. उधर भगत सिंह को लगता था कि गांधी जिस तरीक़े से आज़ादी  हासिल करना चाहते हैं वो सफल नहीं होगा.
एक ही बात  के लिए भगत सिंह गांधी के सामर्थ्य को मानते थे और उनका आदर करते थे और वो  बात थी गांधी की देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुँच और प्रभाव.
गांधी बनाम भगत सिंह
जब  23 वर्ष के भगत सिंह शहीद हुए, उस वक्त गांधी जी की उम्र 62 वर्ष थी पर  लोकप्रियता के मामले में भगत सिंह कहीं से कम नहीं थे. पट्टाभि सीतारमैया  जैसे कांग्रेस के इतिहासकारों ने कहा है कि एक समय भगत सिंह की लोकप्रियता  किसी भी तरह से गांधी से कम नहीं थी.
भगत सिंह  युवाओं के बीच देशभर में ख़ासे लोकप्रिय हो रहे थे. ब्रिटेन में भी उनके  समर्थन में प्रदर्शन हुए थे. भगत सिंह की यह बढ़ती हुई लोकप्रियता कांग्रेस  को एक ख़तरे की तरह दिखाई देती थी.
कई  इतिहासकारों के मुताबिक गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी  आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले क्योंकि गांधी इस  आंदोलन को रोक नहीं सकते थे, यह उनके वश में नहीं था. इस मामले में गांधी  और ब्रिटिश हुकूमत के हित एक जैसे था. दोनों इस आंदोलन को प्रभावी नहीं  होने देना चाहते थे.
इस मामले में गांधी और इरविन  के संवाद पर ध्यान देना होगा जो कि इतना नाटकीय है कि दोनों लगभग मिलजुलकर  तय कर रहे हैं कि कौन कितना विरोध करेगा.
दोनों इस  बात पर सहमत थे कि इस प्रवृत्ति को बल नहीं मिलना चाहिए. भेद इस बात पर था  कि इरविन के मुताबिक फाँसी न देने से इस प्रवृत्ति को बल मिलता और गांधी  कह रहे थे कि फाँसी दी तो इस प्रवृत्ति को बल मिलेगा.
भगत सिंह की फाँसी
गांधी  ने अपने पत्र में इतना ही लिखा कि इनको फाँसी न दी जाए तो अच्छा है. इससे  ज़्यादा ज़ोर उनकी फाँसी टलवाने के लिए गांधी ने नहीं दिया. भावनात्मक या  वैचारिक रुप से गांधी यह तर्क नहीं करते हैं कि फाँसी पूरी तरह से ग़लत है.
गांधी  ने इरविन के साथ 5 मार्च, 1931 को हुए समझौते में भी इस फाँसी को टालने की  शर्त शामिल नहीं की. जबकि फाँसी टालने को समझौते का हिस्सा बनाने के लिए  उनपर कांग्रेस के अंदर और देशभर से दबाव था.
अगर  यह समझौता राष्ट्रीय आंदोलन के हित में हो रहा था तो क्या गांधी भगत सिंह  के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे. 
गांधी  की बजाय सुभाषचंद्र बोस इस फाँसी के सख़्त ख़िलाफ़ थे और कांग्रेस में  रहते हुए उन्होंने गांधी से परे जाकर इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20  मार्च, 1931 को एक बड़ी जनसभा भी की.
इस सभा को  रुकवाने के लिए इरविन ने गांधी को एक पत्र भी लिखा था कि इस सभा को रुकवाया  जाए पर सुभाष चंद्र बोस गांधी के कहने से कहाँ रुकने वाले थे.
गांधी  ने इस बातचीत के दौरान इरविन से यह भी कहा था कि अगर इन युवकों की फाँसी  माफ़ कर दी जाएगी तो इन्होंने मुझसे वादा किया है कि ये भविष्य में कभी  हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे. गांधी के इस कथन का भगत सिंह ने पूरी तरह  से खंडन किया था.
असलियत तो यह है कि भगत सिंह हर  हाल में फाँसी चढ़ना चाहते थे ताकि इससे प्रेरित होकर कई और क्रांतिकारी  पैदा हों. वो कतई नहीं चाहते थे कि उनकी फाँसी रुकवाने का श्रेय गांधी को  मिले क्योंकि उनका मानना था कि इससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान पहुँचता.
उन्होंने  देश के लिए प्राण तो दिए पर किसी तथाकथित अंधे राष्ट्रवादी के रूप में  नहीं बल्कि इसी भावना से कि उनके फाँसी पर चढ़ने से आज़ादी की लड़ाई को लाभ  मिलता. इस मामले में मैं भगत सिंह को क्यूबा के क्रांतिकारी चे ग्वेरा के  समकक्ष रखकर देखता हूँ. दोनों ही दुनिया के लिए अलग तरह के उदाहरण थे.
मेरे  विचार में भगत सिंह की फाँसी जहाँ एक ओर गांधी और ब्रिटिश हुकूमत की नैतिक  हार में तब्दील हुई वहीं यह भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन की नैतिक जीत  भी बनी.
(बीबीसी संवाददाता पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)
 
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